Thursday, February 14, 2013

जिंदगी कैसी ये पहेली

( मूल मराठी कथा तथा अनुवाद -स्वाती ठकार)वि .सू.-यह एक काल्पनिक कथा है अगर कहीं पात्र घटना तथा नाम में साधर्म्य मिले तो योगायोग मात्र !)


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मैं रोज की तरह पार्क में अकेली बैठी थी .इर्द गिर्द बच्चे खेल रहे थे .बेंचों पर बैठे बड़े बूढ़े  अपने बच्चों या नातियों को अपने वहीँ पर मौजूद होने का बीच बीच में अहसास दिलाते थे .एक मैं ही थी ,जो उनपर बराबर नजर रख कर ,उनकी छोटी सी छोटी हरकत भी गौर कर रही थी .वहां मेरे अपने बच्चे नहीं थे .मैं ,उनकी माँ की उम्र का टप्पा पार कर चुकी थी और दादी की उम्र तक पहुँचने में कुछ साल बाकी थे ,सो उनके खेल का बराबर मजा ले रही थी .कोई झूले पर झूल रहा था .कोई सी - सॉ पर वजन आजमा रहा था .कोई फिसलने के लिए घसरगुंडी ( स्लाइड ) तक जा कर डर के मारे पीछे हट रहा था .हर तरफ चहल पहल ,भागम भाग थी .

मेरी नजर अचानक एक बच्ची पर जा कर कुछ ठहर सी गई .तीन साढ़े -तीन फूट उंचाई ,तबियत हट्टी कट्टी थी .छोटी बच्ची के कोई निशान नहीं थे .लेकिन उसके खेलने का तरीका चार साल की बच्ची का था .अकेली खेल रही थी .मुझे अजीब सा लग रहा था .सोचा शायद मतिमंद या गतिमंद होगी .दूर बेंच पर उसके दादा या नाना बैठे  थे .उसे एक टुटा हुआ कंचा मिल गया .दादाजी को दिखाने के लिए वो दौड़ पड़ी .


सात आठ साल की बच्ची को टूटे हुए कंचे  में क्या दिलचस्पी होगी ?मुझे मेरी कहानी का पात्र मिल गया .मैं लेखिका थी  काल्पनिक पात्रों की अपेक्षा जीवंत पात्रों में ज्यादा रूचि थी .मनोवैज्ञानिक ,आदर्श वादी, यथार्थ वादी ,प्रयोगवादी सारे किरदार जीवंत पात्रों में मौजूद रहते है.उम्र के इस पड़ाव पर थी जहाँ डायबेटिस, बीपी जैसे साथी इर्द गिर्द मंडरा रहे थे .इनसे उलझने की अपेक्षा  घूमना फिरना लिखना आदि गतिविधियों में व्यस्त रहने की सलाह घर में सब दे रहे थे. सोचा ,पार्क में कहानी के लिए नया किरदार मिल रहा है...क्यूँ दूर तक जाए ?

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दुसरे दिन मैं ठीक उसी समय पार्क में  गई .आज उसके साथ एक औरत आई थी .उसकी उम्र पचपन के आस पास की होगी .मैं उन्ही के बेंच पर जा कर बैठ गई .बच्ची हमारे इर्द गिर्द ही खेल रही थी .
मैंने बच्ची से पूछा ," अकेली क्यूँ खेल रही हो बेटा ?सी- सॉ पर खेलो ,वहां झुला है देखो ! जाओ ना !"
उसने गर्दन हिलाकर 'ना 'कहा.
" वह डरती है !" औरत ने जवाब दिया .
" इतनी बड़ी बच्ची ,अब तक डरती है ?"मेरा प्रश्न अनायास निकल पड़ा .
"वह छोटी ही है !...सिर्फ चार साल की है ? उस औरत ने मेरी तरफ देखकर कहा .
मेरी नजर का  आश्चर्य  वह झेल नहीं पाई.तुरंत बोली ...
" मेरी पोती है .....बेटी  की लड़की  ...!उसकी मां को  सातवा महिना चल रहा है इसलिए हमारे साथ रहती है .जब पैदा हुई थी तब दस पौंड की थी ....आजकल एक लाख बच्चों के पीछे सौ बच्चे ऐसे पैदा होते है ."
" ऐसे मतलब ?"मेरा प्रश्न तीर की तरह छूट चूका था .
"दिमाग उम्र के हिसाब से ....लेकिन शरीर  ऐसा बड़ा !...हमारा नसीब ...और क्या ?


शायद हर एक को इस प्रश्न का उत्तर देते देते नानी थक गई थी .उनकी आखों से आंसू  उनकी इजाजत बिना निकल पड़े .रोती हुई नानी को देखकर बच्ची उनके पास दौड़ी चली आई .मैं ,न सोच पा रही थी ,न बोल पा रही थी .मानो कुछ ऐसी  नुकीली चीज थी जो   गले में अटक गई  थी .न निगल सकती थी न उगल सकती थी .नानी ने बच्ची की पीठ पर थपथपाकर उसे  फिर  खेलने के लिए भेज दिया .एक अजीब सा मौन छाया था .बच्चों के खेल कूद में ,पत्तों की सरसराहट में ,हवा के साँय-साँय  चलते छाया मौन !...दिल दिमाग को चुभनेवाला मौन !!  

"डॉक्टर ने इसकी कोई तो वजह बताई होगी ?" मेरा प्रश्न यूँ निकला जैसे किसी खाली गहरे कुँए में से निकला हुआ ध्वनि हो .
" क्या पता ! लोग कहते है पहले गाय भैंस घास खाते थे .शाकाहारी थे .अब उनके  तैयार फ़ूड में अंडे वगैरह रहते है .दूध बदल गया है इसलिए ऐसा है ...क्या सच और क्या झूट भगवान जाने " गहरी सांस लेते हुए नानी बोली .

बातचीत से पता चला वह साढ़े तीन  साल  की न होने की वजह से के.जी स्कूल में भर्ती नहीं हो पाई थी .हम उम्र बच्चे उसे बड़ी समझकर दूर रखते थे .बड़े बच्चे उसके बचपने से तंग आते थे .इसलिए  नाना नानी को उसके साथ खेलना पड़ता था .

अब उसके खेल में एक और साथी बढ़ गया .मुझसे कहानियां सुनने लगी थी .मुझे हरदम कुछ न कुछ सुनाना चाहती थी .मेरी कहानी का जो पात्र मात्र थी उसने मेरे मन मष्तिष्क में प्रवेश किया था .उसे मति मंद या गतिमंद कैसे कह सकते थे ?वह तो बच्ची ही थी .दिमाग और उम्र से चार साल की बच्ची का बचपन इश्वर ने क्यूँ छीन लिया ? यह सवाल मुझे हर वक्त झंझोड़ता था .मेरे डॉक्टर मित्रों ने कई वजह बताई .सार्थ समाधान नहीं मिल रहा था .

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उस दिन वह नाना के साथ पार्क में आई थी .आते ही उसने मेरा कब्जा ले लिया .बड़ी खुश थी .मुझे लिपट गई .दोनों हाथ मेरे गालों पर रखते हुए नाचते हुए कहने लगी " मुझे छोटा छोटा भाई हुआ है ?इतनासा है ..तुम भी चलो ना देखने !"
मैंने नानाजी की तरफ देखा .उन्होंने कहा " कल पोता हुआ है .पाच  पौंड वजन है .माँ -बेटा दोनों ठीक है ...कल से उछल रही है ..छोटू को घर ले आयेंगे ..." गहरी सांस लेते हुए पलभर रूककर वो आहिस्ता बोले ," इसकी नानी अस्पताल में है .इसे घर में संभालते संभालते थक गया .ये भी बोर हो गई .इसलिए पार्क में ले आया .


उनके स्वर में नॉर्मल बच्चा पैदा होने की ख़ुशी पोता पैदा होने की ख़ुशी से ज्यादा झलक रही थी .जायज भी था .मुझे भी राहत मिल गई .पता नहीं क्यूँ लेकिन पिछले दो महीनों से उन की हर ख़ुशी और गम में मैं खुद को शामिल करती रहती थी .


अब वो रोज मुझे भाई के कारनामें सुनाने लगी .मां का दूध कैसे पीता है...हाथ पाँव कैसे हिलाता है ..छोटू की शीशी ,सू सू  भी उसके लिए एक टॉपिक था .उसकी साभिनय  बातें देखकर आजू बाजूवाले बड़ी दया की दृष्टी से हम दोनों की तरफ देखते थे .मैं सोचती थी  उन्हें चिल्लाचिल्ला कर बता दूं ..ये लड़की आपके बच्चों से भी उम्र में छोटी है ..हालात की शिकार है ..उसे ऐसे मत देखो ..उसे अपनाओ .अब मनू( मनाली ) मेरे घर तक पहुँच गई थी .वह मुझे एक ख़ास उद्देश्य दे रही थी.उसके साथ बिताया हुआ हर पल मुझे अगले दिन की नई कहानी की तरफ मोड़ता था .मैं सोचती थी ..कल मैं उसे ये कहानी सुनाउंगी .

कहानी सुनने के लए अब एक एक करके बच्चे बढ़ने लगे .मुझे' कहानीवाली काकू  ' की उपाधि मिल गई .मनू को साथी मिल गए .मुझे पता ही नहीं चला मेरा फ्रस्ट्रेशन , डायबेटिस  कहाँ चला गया .
अब न वो आती थी न उसके नाना नानी .मैंने सोचा शायद अपने मां और छोटू के साथ अपने घर  गई होगी .बाकी बच्चे और मैं अपनी मस्ती में मस्त थे .

दिन बीत रहे थे .अब बच्चों की दिलचस्पी कहानियों से खेल की तरफ दुबारा मुड गई थी .खेलते हुए बच्चे देखकर मैं भी खुश हुआ करती थी .

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कई महिने बीत गए. एक दिन उसकी नानी अकेली पार्क में आई.मुझे देखकर मेरे पास आकर बैठ गई  .मैंने मनू के बारे में पूछा .नानी की आँखें आंसूओंसे लबालब भर गई .कुरेदकर पूछने से उन्हों ने जो कुछ बताया ,मैं सन्न सी बैठ गई ........

पाच साल की बच्ची औरत बन गई थी .गर्भाशय सम्पूर्ण विकसित हुआ था .हड्डियाँ चौदा साल की बच्ची की तरह डेवलप हुई थी .एक बचपन वक्त से पहले ख़त्म हुआ था .मां अब बच्ची को नाना नानी के पास नहीं भेजती थी .उनकी उम्र हो गई थी .बच्ची में अब भी बचपना था .उसपर कौन ध्यान देगा ?...सही था .अब हर वक्त उन्हें चौकन्ना रहना पड़ता था. शरीर चौदा साल का ..उम्र और दिमाग पांच साल का !...कितना डरावना असंतुलन !!बच्ची को स्कूल नहीं भेजते थे .स्कूल वालों ने मां बाप को अपनी जिम्मेदारी पर भेजने की चेतावनी दी थी .


उसकी मां बीमार रहने लगी थी .एक मासूम बचपन हालात ने बेरहमी से कुचल दिया था .
निराशा ने मुझे घेर लिया .उनके प्रति मन में उठी सहानुभूति व्यक्त भी नहीं कर सकती थी . सहानुभूति ...बाँझ सी ...न उनकी समस्या का हल ढूंढ़ सकती थी ना उन्हें दिलासा दे सकती थी .मेरे जन्म गाँव में होती तो दस पांच खासम ख़ास  गालियाँ बककर खुद भी फ्रेश होती और माहौल को भी फ्रेश करा देती .लेकिन क्या करती ..? सांस्कृतिक शहर में निवासी जो थी. ऊपर से बुद्धिजीवी का चोला शौक से ओढा था  ,तो सहना ही पड़ेगा ..अजीब सी घुटन थी .


"इस पर कुछ नहीं कर सकते ?" मेरा  सवाल लडखडाता हुआ  नानी  के कानों पर जा गिरा .
वह चुपचाप बैठी रही .थोड़ी देर बाद थकी हुई आवाज आई ,"पांच -छे साल उसे घर में पढाएंगे ! क्या कर सकते है ?...वह बेचारी तो रोती है स्कूल जाने के लिए ...सहेलियों के साथ खेलने के लिए ..लेकिन कौन समझाएं उसे और क्या समझाए ?"
मेरे सामने ये करो ...ये ना करो की पाबंदियों में जखड़ी ,रोती हुई नन्ही सी मनू आ गई ..इफ्तिखार आरिफ का शेर कानों में गूंजने लगा

गुड़ियों से खेलती हुई बच्ची की आँख में
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा मुझे
अजी समंदर कैसा महासागर कहिये .


" आप उसकी मां को समझाकर उसे  यहाँ लाइए .हम कुछ न कुछ करेंगे ." मैंने नानी को तसल्ली देने की कोशिश की .
" उसकी मां !....उसे किसी पर भरोसा नहीं है ..वह खुद बीमार पड़ गई  है .मनू को उसके पापा के पास भी बैठने नहीं देती ,हर वक्त बच्ची के पीछे पड़ी रहती है ..कितना समझाया उसे ?" नानी रुमाल आँखों को लगाकर रोने लगी .मनू की मां में आया हुआ बदलाव कुछ ज्यादा ही चिंताजनक लगा .

मैं ठिठककर वहीँ पर बैठ गई .एक समस्याने कितनी सारी समस्याओं को बढाया था .उसके बाद कई दिनों तक मैंने पार्क में जाना छोड़ ही दिया था ..डर की अदृश्य छाया ने मुझे घेर लिया था .डाय बेटिस डिप्रेशन से थायराइड, लो बीपी मिल चुके थे.

कई बार सोचा उसकी मां को मिलकर आऊं .लेकिन एक अजीब डर ने घेर लिया' क्या  सोचेगी वो?'मन ने फटकारा ,"तुम अपनी तकलीफों से पहले छुटकारा पाओ. बाद में सोशल वर्क करो .लेखिका ही बनो .वही ठीक है ."हाथ में कलम पकड़ने की इच्छा ने दम तोड़ दिया था .अब लिखना लगभग छोड़ ही दिया .लेखिका बनने निकली थी .बन नहीं पाई ..घर में मुफ्त की सलाह बटोर रही थी .'लेखक को आर के लक्ष्मण के कॉमन मन जैसा होना चाहिए .सबकुछ देखकर भी अनदेखा करना चाहिए ..'...अंतर्मन झंझोड़ने लगा ," तुम्हारे जैसे लेखक समाज के लिए कुछ नहीं कर सकते .रट्टूतोते की तरह बड़े बड़े भाषण दे सकते है .लेकिन तुम लोग भगोड़े हो ,पलायनवादी हो .तुम लोगों की सब से बड़ी मज़बूरी ये है की अपनी संवेदनाओं को तुम पूरी तरह दफना  भी नहीं  सकते .'

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समय ....! सबसे बड़ा हकीम !!...अब मनू पानी के बुलबुले की तरह कभी कभार याद आती थी .मैं फिर से पार्क में जाने लगी .फिर एक अजीब सी लड़की ने मुझे आकृष्ट किया. एक नन्ही सी ढाई तीन साल की बच्ची अकेली खेल रही थी .बड़े बूढों की तरह बातें कर रही थी .तेज तीखी आवाज में डांट रही थी .अकेली ही बडबडा रही थी ...मनू से मिलने के बाद मैंने बच्चों की  कद से उनकी उम्र का अंदाजा लगाना छोड़ ही दिया था.
वह अपने पापा के साथ आई थी .पापा किसी बुजुर्ग से बात कर रहे थे .मैंने उसे अपने पास बुलाया .उसे समझाते  हुए कहा ,"अकेली क्यूँ खेल रही हो ?बच्चों के साथ खेलो ना झूले पर ,सिसों पर बैठो ."
"सब मुझे धक्का देते है ,गिराते है !" उसने गाल फुला कर जवाब दिया फिर अपने पुराने खेल से जुड़ गई .
वह मेरे बाजु के बड़े पत्थर की टीचर बनी थी ,उसके डायलाग में उसकी टीचर का आभास हो रहा था ..शायद स्कूल में वो पत्थर का रोल करती होगी .....! होमवर्क वो भी ट्यूशन और क्लास दोनों का ,न होने से बेचारा पीटा जा रहा था .वह मेथ्स में डफर था ...इंग्लिश उसको बिलकुल आती नहीं थी ..अजी कैट का भी स्पेल्लिंग उसको आता  नहीं था ...वह सारा वक्त खेल कूद और मस्ती करता था ..ऐसे हालात में  उसका पीटा जाना    स्वाभाविक ही था .शायद स्कूल और ट्यूशन दोनों में एक ही टीचर होगी ...अब वो पत्थर रो रहा था .

" रोते क्या हो पागल !रोज की पढ़ाई नहीं करनी है ! सिर्फ मस्ती करता है .बड़ा  होकर  क्या बनेगा ?कल मम्मी को मेरे  पास लेकर आ !"
बेचारा पत्थर शर्म से झुक गया था .टीचर का मम्मी को बुलाना उसे कतई मंजूर नहीं था. बगैर बोले मार खाता जा रहा था.थकी हारी टीचर मेरे पास आकर बैठ गई .
"  स्कूल में जाती हो ?" मेरा सवाल .
"जाना ही पड़ता है ना ..क्या करे ?" उसने मुंह सिकुड़कर जवाब दिया .
कौन सा स्कूल ? " मैंने पूछा .
" एंजल्स पेराडाइज !" .बच्ची परियों के नंदनवन में पढ़ती थी .
कौन सी क्लास में हो
उसने एक दो तीन करके पाच उंगलिया दिखाई .
मेरा सर चकराने लगा .'हे प्रभु ,अब ये तुम्हारी कौन सी लीला है ?'
मैं स्तब्ध हताश सी बैठी थी .मैंने आँखे मूंद कर  बेंच की टेक ली .बच्ची मेरे बाजु में बैठ कर शायद मेरा ही परिक्षण कर रही थी अब बिस्कुट कुतरने की आवाज आने लगी .
" इसने परेशान तो नहीं किया ना आपको ?"मैंने आँखें खोली .उसके पापा मुझे पूँछ रहे थे .
" नहीं तो .थोड़ी स्ट्रिक्ट टीचर है .लेकिन बड़ी प्यारी बच्ची है आपकी !" मैंने हंस कर जवाब दिया .
" प्यारी ? शैतान की नानी है वो !अगले साल जब असली टीचर देखेगी तब पता चलेगा ."उन्हों ने उसकी तरफ प्यार से देखते हुए कहा .
" मैं समझी नहीं ?" मेरा संभ्रम स्पष्ट दिख रहा था .
" स्कूल में कहाँ जाती है ..मार्च में साढ़े तीन की होगी .तब केजी में जाएगी ." उसके पापाने उसकी सारी पोल खोल दी .मैंने दोनों हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया और उनको असलियत बताई .
" एक नंबर की झूठी  है  वो ...हमेशा दीदी से बराबरी चलती है ....उनके खेल में दीदी हमेशा टीचर रहती है और ये उसकी स्टुडेंट .दीदी सेकण्ड  स्टेंडर्ड में पढ़ती है   उसकी एक्झाम है... वो पढाई कर रही है .इसलिए आज यहाँ ये टीचर बन गई .आज मुझे छुट्टी है इसलिए मेरे साथ आई है .."उसके सिरपर टपली  मारते हुए उन्होंने पूछा ,
"क्यूँ रे बदमाश ! काकू को क्या बताया ?"
पापा की नजर से कौतुक टपक रहा था .उनके पीछे छुपकर वह मेरी तरफ आँखे मिटमिटाकर  हंस रही थी .मैंने उसे अपने पास बुलाया . एक खिलखिलाता बचपन मेरी तरफ आ रहा था .मैंने बाँहे पसारकर उसे समेट लिया .ख़ुशी की लहर मेरे रोम रोम में दौड़ रही थी .
मैंने उसे शेक हेंड करने का नया तरीका बताया .मेरी और अपनी उंगलिया तीन चार बार जोड़कर  बिलकुल वैसा ही शेक हेंड किया .और मेरे कान में आकर बोली .कल मैं आप की टीचर बनूँगी ..जरुर आना ."
मैंने तुरंत  ट्यूशन और स्कूल का होम वर्क करने का वादा किया . टीचर पापा के साथ फुदकती हुई अपने घर चली गई और मैं गुड गर्ल की तरह अपने घर की तरफ ...!'ये सब मैं जरुर लिखूंगी!' इस नई उम्मीद के साथ ...मन में गीत  गूंज रहा था

जिंदगी कैसी ये पहेली हाए
कभी ये हँसाएँ कभी ये रुलाए ..

स्वाती ठकार



--
Regards,
Swaty Thakar.

त्या दोघी

मानवी स्वभावाचे मला नेहमीच कुतुहल वाटत आले आहे.शालेय जीवनात ,महाविद्यालयीन काळात ,नंतर नोकरीच्या निमित्ताने ,नंतरच्या साहित्यिक प्रवासात अनेक माणसे पाहिली.माझ्या सुदैवाने बालपण खडकलाट सारख्या खेड्यात गेल्यामुळे  लहानपणापासूनचा प्रवास आगाऊ,भोचक असा विशेषणानी बहरून गेल्यामुळे माणसाना जवळून अनुभवता आले.
आज ज्या दोघींबद्दल मी सांगत  आहे त्या दोन्ही कथा नायिका मला मानवी नाते संबंधांचे अनेक कंगोरे उलगडून दाखवतात.मी तेव्हा ठाण्याला विद्याप्रसारक मंडळाच्या तंत्रनिकेतनात काम करत होते .कुर्ल्याला एस .टी क्वार्टर्स मधे राहात होतो .नुकतीच राहायला गेले होते..लोकलचे टाइम टेबल ,लोकल प्रवास याचे गणित जुळवत प्रवास सुरु होता.  कुर्ल्याहून ठाण्याला जाताना  विशेष गर्दी नसे .. माझ्यासोबतच गाडीत चिक्कुवाल्या ,टिकली कानातली विकणाऱ्या ,चिलीमिली वाल्याही चढत .सीट रिकामी असल्याने बऱ्याचदा या बायांशी ठाणे येईपर्यंत मनसोक्त गप्पाही होत .अशाच बायांपैकी एक सुनंदा ...30-35 वर्षाची असावी ..पण रापलेली काया काळा कुळकुळीत अवाढव्य सुटलेला  देह यामुळे जास्तच वय जाणवत होते .टिकल्या विकायची ...आमच्या गाडीने कल्याण पर्यंत जायची ...तिच्याशी खूपच गप्पा व्हायच्या .
एक दिवस  अशीच पावसाळ्याची गाडी  लेट धावत होती .सुनंदा एका तिच्याच वयाच्या काळ्याकुळकुळीत माणसाबरोबर आणि एका अठरा वीस वर्षाच्या काळ्या चुणचुणीत मुलीबरोबर एकाच वेळी भांडत होती. .ती मुलगी आणि तो माणूस कन्नडमधे बोलत होते आणि सुनंदा त्या माणसाशी कन्नड हेलवाल्या मराठीत बोलत होती. तो माणूस त्या मुलीला' तू सोबत घेऊन जा !'असे सुनंदाला सांगत होता ..ती त्याला 'तू हिला घेऊन घरी जा !'असे सांगत होती ...या वादात ती मुलगी रडकुंडीला आली होती ..गाडी आल्यावर त्या माणसाने मुलीला गाडीत चढवले हिने गाडी सुटता सुटता तिला खाली ढकलले...ती पोरगी फलाटावर धडपडून पडली.मला सुनंदाचा खुपच राग आला .  
"काय ग कळतं की नाही तुला !किती जोरात पडली ती पोरगी ?" मी जोरात ओरडले.
"मरू दे कुत्रीला ...!"टिकल्यांचा डबा माझ्या शेजारी आदळत ती म्हणाली
"कोण ग ती ...तुझी मुलगी ....?आणि तो माणूस कोण?"
"माज्या पोरीना ढकलीन व्हय मी ...?ती रांड माझी सवत आणि तो भडवा माझा नवरा ...!" आता माझ्यातील लेखिका पुढे पुढे सरसावली अणि माझ्या शेजारच्या बायका बिचकून मागे मागे गेल्या ...या सगळ्या शब्दांचीही सवय असावी लागते ना...!पहिलं तिला शांत केलं...आणि मग ठाणे येईपर्यंत पदरात तपशील पडला तो असा ...ती मुलगी त्या माणसाच्या बहिणीची मुलगी ....लहानपणीच( नवव्या वर्षीच ) तिचं या मामाशी आई आणि आजीनी लग्न लावून दिलं ....तिच्याशी त्यानं लग्न तर केलं.. पण जिला कडेवर घेऊन फिरला होता त्या भाचीशी  संसार करायचा टाळून कामाच्या निमित्ताने (बांधकामावर सेंटरिंग कामगार) मुंबईला आला .. 
सुनंदाशी सूत जमले लग्नही झाले ...दोन पोरी झाल्या ...छान संसार सूरु असतानाच ही पोरगी वयात आल्यावर माय लेकीनी ( आई सासू बहिण ....कोणतंही नातं जोडा )बालिका  बधूला याच्याकडे आणून सोडली ...'नांदव नाहीतर ढकलून दे गाडीखाली !'म्हणून बारकीला सोडून  गावी उस्मानाबाद कडे निघून गेल्या..नात्यानं तिचा मामाच होता ...बिचारा गाडीखाली कसा ढकलणार !...तीही रुळली इथं हिच्या पोरीना सांभाळू लागली ..संध्याकाळचा स्वयंपाक करू लागली ...तशी नित्य नेमे रोज रात्री या मुद्द्यावर भांडणं होतच होती .... याची बांधकामाची कामं बंद झाली होती ..त्यामुळे मी मुलीना संभाळतो ...वस्ती चांगली नाही ...ही तरूण पोरगी तू तुझ्या सोबत घेऊन जा  म्हणून  दोघींचा नवरा सुनंदाला गळ घालत होता ....
नेहमीच्या मिल्स ऐंड बून्स ,बार्बारा कार्टलैंड ,खांडेकर,फडके अगदीच  रोमांटिक  म्हणून चुंबन ,गाल आरक्त होणाऱ्या काकोडकर साहित्य वाचणाऱ्या मला सगळ्याची गम्मत वाटत होती ..एक दिवस अगदी उलट चित्र होते .नवरा बारकीला घराकडे ओढून नेत होता ...आणि ही मात्र तिला आपल्या सोबत खेचून आणत होती . 
गाडीत शिरल्या शिरल्या मी प्रश्न केला ..."का ग आधी तर हिला हाकलत होतीस  मग आजच कशाला एवढं प्रेम उतू चाललय ?" प्रेम ... डोंबल माझं...मुडदा उचलला हिचा ...म्हणून दाणकन तिच्या पाठीत एक दणका दिला ..तिनंही तिच्या झिंज्या ओढल्या ...मधल्या लेडिज डब्याला जोडूनच जेंटस् डबा असतो ...लोक ओरडायला लागले ..या  समोरासमोरच्या जागी बसल्या .घाटकोपर ते विक्रोळी नुसऱ्या एक मेकीकडे खाऊ की गिळू असे बघत होत्या ...मी कन्नड मधे बारकीला काय झालं म्हणून विचारलं ....
बरंच काही झालं होतं ..त्यालाही काम नव्हतं म्हणून तो घरी राहायचा ...हिनेही तिला सोबत ठेवले नसल्याने तीही घरी ......!वासना ही अतितीव्र शक्ती असते ...नाते बंधन सर्व भावभावनाना  दूर सारून ती पुढे सरसावते .बारकीला दोन महिने झाले होते ...ही ठाण्याला नेऊन तिचा गर्भपात करणार होती ....ठाण्यात उतरताच मागच्या डब्यातल्या  मामाबरोबर भाची पळाली....आता मात्र मला या कुटुंबा बद्दल विलक्षण कुतुहल वाटू लागले ..
बारकीला मुलगा झाला ...हिच्या पोरीना भाऊ मिळाला ...बारकी घरी तीन पोरं संभाळू लागली ...ही देखील 'अजून होऊन होऊन काय वाईट होणार!' म्हणत रेल्वेत टिकल्या विकत धंदा करत होती .....तो पोरगा सहा महिन्याचा झाला ...सुट्टीत हिच्या पोरी तो पोरगा ...टिकल्या विकणारी ही आणि चिक्कु घेऊन बारकी असे अख्खे कुटुंब आमच्या गाडीला असे ...पोरी भावाला संभाळत ...जेव्हा पोरींची शाळा असे तेव्हा  सुनंदा बारकीचे पोर सांभाळत टिकल्या विकत असे ..कारण तिला पोर आणि चिक्कुची टोपली दोन्ही घेणे जमत नव्हते. कधी कधी दोघी धंदा करायच्या आणि ठाण्यापर्यंत ते काळेकुळकुळीत ,गुबगुबीत ,चुणचुणीत पोर माझ्या मांडीत ऐसपैस पसरायचे ....आजही गोपाळकृष्ण म्हटले की ते पोर दिसते ...डोक्याला झालरीची  कुंची ,झबले ,काळाकुळकुळीत तीट गालावर कपाळावर हनुवटीवर ....येता जाता दोघी त्याच्या गालाला हात लाऊन आल्याबल्या  करत राहायच्या ...बऱ्याचदा कुर्ल्याला चढल्या चढल्या सुनंदाच्या ऐसपैस मांडीत ते पोर निवांत निजायचे ..मग चिक्कु आणि टिकल्या दोन्ही बारकीच विकायची ...एकदा तर दोघी मिळून तिसऱ्या चिक्कुवालीशी भांडत होत्या

तो पोरगा दोन वर्षाचा असताना पाचव्या मजल्यावरून पडून नवरा मेला .....आठ दिवसात दुःख विसरून सुनंदा कामावर यायला लागली ..आता बारकी ( मोठ्या होत चाललेल्या )हिच्या पोरी आणि आपला मुलगा सांभाळण्या साठी घरी राहू लागली ..दरम्यान तिचे आईवडील आणि आजी गावी तिला न्यायला आले पण दोन सवतीनी दंगा करून प्लान उधळला ...सुनंदाची  वयात आलेली पोरगी सोबत देऊन त्याना गावी पाठवून दिलं
नंतर मीही पुण्याला शिफ्ट झाले ...पण आजही जेव्हा मी या दोघींचा विचार करते तेव्हा अनेक प्रश्न मनात घोंगावतात .रक्ताचे नाते श्रेष्ठ की मानलेले .... दोन बायका इतक्या विभिन्न भाव भावनानी कशा काय जोडल्या जातात .....शेवटी नाती वगैरे यापेक्षा नर आणि मादी हेच नाते खरे की काय .......?एक मात्रं झालं चांगलं -वाईट,काळं-गोरं,दुष्ट -सूष्ट असं काहीच स्थायी  नसतं   एवढं मात्र पटलं ...आज कदाचित त्यांच्या पोरींची लग्न झाली असतील ...पोरगाही कुठेतरी कामाला चिकटला असेल ...आणि या दोघी ....टिकली, चिक्कु ची टोपली फिरवत गाडीत फिरत...असतील ...कधीतरी त्या गाडीला जाऊन  त्या दोघी भेटतात का हे पाहावं वाटतय !☺☺☺
स्वाती ठकार

बेबीज डे आऊट

“श्वेता ,हे घे तुझं प्रोग्रेस कार्ड ..उद्या मम्मीला घेऊन ये .तू फक्त ड्राइंगमधे आणि वर्क एक्सपिरियन्स मधे पास  झालीयस ...बाकी फेल आहेस ...आय मस्ट टाक टू युअर ममा ...!”डिसोझा टिचर श्वेता बेबीवर जोरात खेकसली ...तशी ती एकदम दचकली ... टिचरच्या ओरडण्या पेक्षा मम्मी कशी भडकेल हे आठवून ती जास्त भेदरली ..

“मिस, मम्मी नको ..बाबाला घेऊन येऊ ..?ती बिचकत म्हणाली  .

“ नो श्वेता, मम्माशीच बोलावं लागेल मला !” डिसोझा टिचरने बेबीचं प्रपोजल  झटकून टाकलं  ....
सिनियर केजी संपवून बेबी जशी पूर्णवेळ पहिलीच्या वर्गात आली तशी ही शाळा म्हणजे बाबाने सांगितलेल्या गोष्टीतील बंद किल्ला आणि डिसोझा टिचर म्हणजे मुलाना मटामटा खाऊन टाकणारी  दुष्ट चेटकीण वाटायला लागली . तिला लिहायला आवडत नव्हतं गणितं नकोसं वाटत असे ...फक्त ड्राइंग आणि वर्क एक्सपिरियंसच्या टिचर आवडायच्या... पण त्या थोडावेळच येत .

सकाळीच मम्मा ओरडली होती“...बेबी ,आज प्रोग्रेस कार्ड मिळेल ..बघू काय दिवे लावलेत ते ....!जर फेल झालीस तर टीवी एकदम बंद ... तुला हास्टेलमधेच टाकते की नाही बघ ...!उठ सूठ कार्टून बघत असते कार्टी ....आमच्या बँकेतल्या शिपायाच्या मुलाला  दहावीला  90 टक्के मार्क मिळाले ...ज्याच्याकडे नसतं ना त्यालाच कळतं .... !”

बेबी मात्र शाळेत येईपर्यंत टक्के ...टक्के बडबडत येत होती ...तिला हा शब्द खूप आवडला होता ..ती मामाकडे गुहागरला सुटीला गेली तेव्हा तिथल्या वाडीतल्या रेशमाबरोबर ती खेळायची तेव्हा “ का ग रेश्मा टक्का दिला ...?कोण म्हणतो टक्का दिला..?.बेबी म्हणते टक्का दिला ...?का ग बेबी टक्का दिला ?कोण म्हणतो टक्का दिला..?हा मस्त खेळ आठवला ..

पण आता हातातलं रिपोर्ट कार्ड तिला गोष्टीतल्या राक्षसा वाटायला लागलं ...तिला शाळा सुटुच नये वाटायला लागलं ...ड्राइंगची सोनम टीचर वर्गात आली तिनं बेबीचें ड्राइंग सर्वाना दाखवलं खूप कौतुक केलं तेव्हा बेबीला वाटलं सोनम टीचरला घरी घेऊन जावं आणि सांगावं “आमच्या  मम्मीला हे सगळं सांगा ना मिस..!”

पण तिला माहित होतं मम्मी फक्त रेड लाईनच बघणार ...बाबाचं तिच्यापुढं काही चालणार नाही ...त्या पेक्षा शाळेतच लपून बसुयात का ? नको रे बाबा ...दार बंद होईल ना ... !त्यापेक्षा शाळेच्या मागच्या बागेत बसू ...?पण रिक्षावाले काका शोधत राहतील ना ...!लपून बसु या ..पण आज शाळा हाफ डे आहे आणि बँकही अर्धीच ..म्हणजे आणायला मम्मीच येणार ...बापरे ...!”आता तिला जास्तच भीती वाटू  लागली ..चेटकिणीच्या जागची डिसोझा जाऊन तिथं  मम्मी आली ..तिला अजून धडधडायला व्हायला लागलं..

शाळा सुटताच...ती मागच्या गेटने लोंढ्यातून बाहेर पडली कडेकडेने घराच्या विरुद्ध दिशेने चालायला लागली ..घराकडे निघाली असती तर मम्मीनं  तिला शोधून काढलंच असतं ..आणि प्रोग्रेस कार्ड एका झटक्यात काढून  घेतलं असतं ...बापरे ....बेबी आठवून एकदम दचकली..तिच्या बाजूने एक काका जात होते ...ते एकदम  थांबले..

“काय झालं बाळा ! काय नाव तुझं... रस्ता चुकलीस का ?”श्वेता देशमुख तुझं नाव ना ...ते युनिफार्मवर चिकटवलेला बॅज वाचू लागले . ”बेबी, माहित नसलेल्या कुणालाही आपलं नाव नाही सांगायचं...!कुणाशीही बोलायचं  नाही  .लोक पळवून नेतात !आणि डोळे ,हात कापून भीक मागायला बसवतात ..!”तिला  कामवाल्या मीनाताईंनी सांगितलेलं आठवलं  ,,तशी ती पुढे जोरात पळाली आणि बाजुच्या कार्पोरेशनच्या बागेत शिरली ..एका झाडाजवळ जाऊन बसली..
....

 एवढ्यात तिथे एक पेरूवाला आला..मस्त पेरू होते ...पण तिच्याजवळ पैसेच नव्हते ना .....कशाला रस्त्यावरचे पेरू खायचे ...?पोटात दुखायला लागलं म्हणजे ? ...तिनं स्वतःला समजावलं...

एवढ्यात तिथं दोनतीन टारगट पोरं आली आणि पत्त्यांचा डाव मांडून बसली ..हरणारा पैसे देत होता ....’किती मस्त आहे हा खेळ ...पैसेच पैसे ...कितीही पेरू खा !’बेबी मनात म्हणते ....तेवढ्यात त्यांचे जोरजोरात भांडण मारामारी सुरु झाली ...बेबी तिथून पळाली आणि घसरगुंडीजवळ येऊन बसली ..पाठीला दप्तर लावूनच तीन चार वेळा वर खाली गेली ...दप्तर   कुणी नेले असते म्हणजे ! बरं होईल .....रिपोर्ट कार्डची पीडा तरी जाईल असे तिला क्षणभर वाटले पण मम्मी दूसरे नक्की मिळवेल आणि मग अजून भरपूर ओरडेल याचीही तिला खात्री होती ..

आईच्या ओरडण्या पेक्षा बाबा कट्टी घेईल याचे तिला जास्त वाईट वाटत होते ...आता संध्याकाळ व्हायला आली होती बेबी फिरून आणि खेळून कंटाळली...तिथल्याच एका गच्च झुडुपाजवळच्या बाकड्यावर दप्तर पोटाजवळ घट्ट  पकडून बसली ...हळूहळू पेंगू लागली ...तिथेच मुटकुळं करून झोपली ..

कुणाच्या तरी ओरडण्यानं तिला जाग आली .तिला कुणीतरी पटकन कुशीत घेतलं होतं ..तिनं डोळे किलकिले केले...आणि दचकली ... चेटकीणच होती ...“अग शोनू कुठंकुठं शोधायचं रे बबडू तुला ?....टिचर ओरडली माझ्या पिल्लाला ?आपण टीचरला सांगू पुढच्या परीक्षेत खूप अभ्यास करून छान मार्क आणू म्हणून !”
बेबीला कळेना... चेटकिणी रडतात म्हणून बाबानी ,सांगितलं नव्हतं .तिनं लख्ख डोळे उघडले ..टार्चच्या प्रकाशात बघते तर काय चेटकीण नव्हतीच ती तर तिची लाडकी मम्मा होती ....!आणि ती अजूनच तिच्या कुशीत शिरली ... 



स्वाती ठकार
(08-07-2011..14.20)